‘हर ज़ुल्म


हर सितम हर ज़ुल्म जिसका आज तक सहते रहे
हम उसी के वास्ते हर दिन दुआ करते रहे
दिल के हाथों आज भी मजबूर हैं तो क्या हुआ
मुश्किलों के दौर में हम हौसला रखते रहे
बादलों की बेवफ़ाई से हमें अब क्या गिला
हम पसीने से ज़मीं आबाद जो करते रहे
हमको अपने आप पर इतना भरोसा था कि हम
चैन खोकर भी हमेशा चैन से रहते रहे
चाँद सूरज को भी हमसे रश्क होता था कभी
इसलिए कि हम उजाला हर तरफ़ करते रहे
हमने दुनिया को बताया था वफ़ा क्या चीज़ है
आज जब पूछा गया तो आसमाँ तकते रहे
हम तो पत्थर हैं नहीं फिर पिघलते क्यों नहीं
भावनाओं की नदी में आज तक बहते रहे

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