यादें "हिन्दी" कविता की दुनियाँ
एक डोली और एक अर्थी आपस में टकरा गए इन्हें देख लोग घबरा गये ऊपर से आवाज़ आई ये कैसी बिदाई है लोगो ने कहा महबूब की डोली देखने यार की अर्थी आई है
Sunday, December 29, 2013
जागो
लापता
Friday, February 15, 2013
जिंदगी की राहें: लोकार्पण: पगडंडियाँ
बहुत ही खुबसूरत विवरण प्रस्तुत किया है आपने उस खुबसूरत शाम का ............ कार्यक्रम में शामिल न होते हुए भी वहीँ होने का अहसास हुआ .... शुक्रिया आपका
Tuesday, December 4, 2012
रूपली
कागद रो जग जीत गे हू या घणा परेशान
जग भुल्या घर भुलग्या , भुलग्या गाँव समाज
गाँव री बेठक भूल्या , भुलग्या खेत खलिहान
बचपन भुलया, बड़पण भुलया, भुलया गळी -गुवाड़
बा बाड़ा री बाड़ कुदणी, पिंपळ री झुरणी बो संगळया रो साथ
कद याद ना आव बडीया बापड़ी , घणा दिना सूं ताऊ
काको भूल्या दादों भूल्या , बोळा दिना सूं भूल्या माऊ
इण कागद री माया घणेरी यो कागद बड़ो बलवान
कागद रो जग जीत गे हू या घणा परेशान
गाँव रो खेल भूल्या, बचपण मेल रो भूल्या
गायां खूँटो भूल्या , पिंपळ रो गटो भूल्या
राताँ री बाताँ बिसराई , मांग्योड़ी छा बिसराई
धन धन में भाजताँ बाजरी गी ठंडी रोटी बिसराई
कभी-कभी
Saturday, July 28, 2012
रात भर...
करके वादा कोई सो गया चैन से
करवटें बदलते रहे हम रात भर !!१!!
हसरतें दिल में घुट-घुट के मरती रही
और जनाज़े निकलते रहे रात भर !!२!!
रात भर चांदनी से लिपटे रहे वो
हम अपने हाथ मलते रहे रात भर !!३!!
आबरू क्या बचाते वह गुलशन कि
खुद कलियाँ मसलते रहे रात भर !!४!!
हमको पीने को एक कतरा भी न मिला
और दौर पर दौर चलते रहे रात भर !!५!!
रौशनी हमें दे ना पाए यह चिराग अब
यूँ तो कहने को वो जलते रहे रात भर !!६!!
छत में लेट टटोले हमने आसमान
अश्क इन आँखों से ढलते रहे रात भर !!७!!
.........नीलकमल वैष्णव "अनिश".........
Tuesday, April 3, 2012
अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया
जिसको गले लगा लिया वो दूर हो गया
कागज में दब के मर गए कीड़े किताब के
दीवाना बे पढ़े-लिखे मशहूर हो गया
महलों में हमने कितने सितारे सजा दिये
लेकिन ज़मीं से चाँद बहुत दूर हो गया
तन्हाइयों ने तोड़ दी हम दोनों की अना
आईना बात करने पे मज़बूर हो गया
सुब्हे-विसाल पूछ रही है अज़ब सवाल
वो पास आ गया कि बहुत दूर हो गया
कुछ फल जरूर आयेंगे रोटी के पेड़ में
जिस दिन तेरा मतालबा मंज़ूर हो गया
Thursday, March 15, 2012
Sunday, February 12, 2012
ए ज़िंदगी और क्या चाहती है तू
Pic by Dinesh
लावारिस आवारा सी लगती है तू
छम छम मटकती कहा चलती है तू
मनचली दीवानी सी पगली बेगानी सी
केसुओ से नज़रे छुपाए
किस से बचती है तू
कब रोती है
कब हँसती है
कई राज़ है सीने मे
सजदे जो करती है तू
तेरी आश्की मे
ऐसी खो ना जाउ
खुद को भी मैं समझ न पाउ
मंन मदहोश करती है तू
यह रंग कैसे रचती है तू
समझ न पाया कोई
तो कैसे जानू मैं
मोहरा हूँ तेरे हाथ का
ए ज़िंदगी और क्या चाहती है तू
Monday, February 6, 2012
लो क सं घ र्ष !: हिंदी के महान साहित्यकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा के कार्यालय में भ्रष्टाचार नहीं होता ?
श्री कुशवाहा साहब के बाराबंकी में ए.आर.टी.ओ पद पर तैनाती के बाद उनके कार्यालय के कर्मचारियों ने रिश्वत खानी बंद कर दी है ? श्री कुशवाहा साहब भी रिश्वत नहीं खाते हैं ? लखनऊ में साधारण मकान में आप निवास करते हैं लेकिन जनपद स्तर के अधिकारी होने के नाते वह कभी मुख्यालय नहीं छोड़ते हैं ? आम आदमी की तरह श्री कुशवाहा साहब अपनी तनख्वाह में जीने के आदी हैं ? श्री कुशवाहा साहब सत्तारूढ़ दल की रैलियों के लिये कभी वाहन पकड़ कर रैली में जाने के लिये बाध्य नहीं किया है ? इस तरह से हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार अन्य साहित्यकारों के लिये प्रेरणा स्रोत्र हैं और हर हिंदी के साहित्यकार को उनसे प्रेरणा लें, यदि उपरोक्त नियम-उपनियम के विरुद्ध कार्य कर रहे हों या कभी-कभी रिश्वत खा रहे हों तो बंद कर देना चाहिए ?
अगर आपको मेरी बात पर विश्वास न हो तो बाराबंकी जनपद आ कर ऐसे ऐतिहासिक महापुरुष का दर्शन करें तथा कार्यालय में उक्त बिन्दुओं पर ध्यान देकर अन्य सरकारी कार्यालयों में उसको लागू करवाने की नसीहत ले सके।
सुमन
लो क सं घ र्ष !
Thursday, December 29, 2011
कुछ तुम कहो कुछ मैं कहु |: एक वर्ष ने और विदा ली एक वर्ष आया फिर द्वार।
Tuesday, December 27, 2011
आखिर कब फिरेंगे घूरे के दिन
जब मेरे किसी मित्र के
शुभागमन पर
अंदर से
पत्नी की कर्कश आवाज आती है
चाय ले लीजिए
तो उस आवाज में
कितनी कुढऩ होती है
उबली हुई चाय की पत्ती
जैसी कड़ुवाहट होती है
मैं समझ जाता हूं
कि आज फिर
उधार ली गई
चीनी की चाय बनी होगी
मैं देखता हूं
जब बच्चे
मिठाई खाने की जिद करते हैं
और मैं उन्हें
स्वाध्याय का महत्व समझाकर
कुछ पत्रिकाएं खरीद लाता हूं
तो उनकी आंखों में
कितनी निराशा होती है
अपने खुश्क होठों पर
जीभ फेर कर
वह फोटो देख और चुटकुले पढ़ते हुए
मुंह का बिगड़ा जायका बदलने लगते हैं।
मैं सोचता हूं
कि आखिर कब फिरेंगे घूरे के दिन
और कब पूरे होंगे बारह साल
Sunday, December 25, 2011
रामनाथ सिंह अदम गोंडवी के साथ हिंदी संस्थान लखनऊ में
रामनाथ सिंह अदम गोंडवी के साथ हिंदी संस्थान लखनऊ में
हिंदी संस्थान में श्री रामनाथ सिंह अदम गोंडवी के साथ कवि कैलाश निगम, श्री गजेन्द्र सिंह पूर्व विधायक, जवाहर कपूर, वाई.एस लोहित एडवोकेट
रामनाथ सिंह अदम गोंडवी को सम्मान पत्र देते हुए नवीन सेठ, पूर्व विधायक गजेन्द्र सिंह, जवाहर कपूर, वाई एस लोहित
डॉ रामगोपाल वर्मा, बृजमोहन वर्मा , रणधीर सिंह सुमन सम्मान पत्र देते हुए रामनाथ सिंह अदम गोंडवी को
गजेन्द्र सिंह पूर्व विधायक व नवीन सेठ अंग वस्त्रं भेट करते हुए।
Wednesday, October 19, 2011
कुछ तुम कहो कुछ मैं कहु |: खूब चलता है ब्लॉग जगत में औरत और मर्द का भेद भाव
Tuesday, July 19, 2011
स्त्री-तžव
Thursday, March 24, 2011
राहतें और भी हैं
संतुष्टि का मंत्रोच्चारण और उसके प्रभाव-प्रकार अलग हैं लेकिन जब रसोई को महंगाई खाने लगे तब प्रेम के भावों पर अभाव हावी हो ही जाते हैं। सिर और पैरों की जंग में चादर अक्सर फटती आई है। शायर ने कहा भी है :
ढांपें हैं हमने पैर तो नंगे हुए हैं सिर
या पैर नंगे हो गए सिर ढांपते हुए। यह तो हुई अभावों की बात। अब इसके बावजूद अगर प्रेम को ही देखना है तो कहा जा सकता है कि प्रेम में जो लड़के होते हैं वे बहुत सीधे होते हैं और प्रेम में जो लड़कियां होती हैं वे भी चालाक नहीं होती। प्रेम की तासीर है कि चालाकों को बख्श देता है। जिन लड़कियों के नितांत निजी पल मोबाइल कैमरे झपट लेते हैं वे बहुत बाद में जानती हैं कि प्रेम दरअसल था ही नहीं। वही कुछ कमजोर पल सार्वजनिक हो जाते हैं और ऐसा सबकुछ लिख डालते हैं जो पढने योग्य नहीं होता।
प्रेम न तो बांधता है और न छोड़ता है। वह है तो है और नहीं है तो नहीं है। वह सबके प्रति एक सा होता है। देश, संबंध, प्रकृति, मानवता और उस सबकुछ के प्रति जो भी जीवन में रंग भरे। प्रेम के बीस चेहरों में से वास्तविक को पहचानना हो तो कठिन भी नहीं। वह आवारा नहीं होता। जिम्मेदार और होशमंद होता है। आवारा होता तो खाप के खप्पर से न टकराता। प्रेम तो रास्ता दिखाता है शाश्वतता का। लेकिन प्रेम से भी दिलफरेब होते हैं गम रोजगार के। प्रेम न भटकता है और न भटकाता है, जमीन पर रखता है।
तभी तो फैज अहमद फैज से भी कहलवा गया था :
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग
और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
खो गई है हंसी
जो कहा नहीं गया
जैसे धीरे-धीरे कोई होता है मरणासन्न /
वह कहने से
बचने का नहीं
कहने के लिए समय न होने
का संक्रमणकाल था/
पत्र वैसे ही खत्म हुए
जैसे होते हैं शब्द /
सबसे पहले उड़ा ‘प्रिय’
फिर हाशिये से बाहर हुए ‘आदरणीय’
फिर नाम
और फिर वह गायब हुआ
जो कहना होता था /
यह समय के चाबुक से छिली
संवाद की पीठ थी या
व्यस्तताओं के बटुए से छिटकी भाषा की पर्ची
लेकिन पता यही चला
संवाद नहीं रहा/
खतरनाक आवाज करने वाले
काले चोंगे भी चुक गए
फिर अचानक ही दुनिया आ गई जैसे मुट्ठी में
ऐसा यंत्र जो विभिन्न ध्वनियों में नाम झलका कर
शोर मचा कर बताता था
‘अमुक कॉल कर रहा है’/
संप्रेषण का यह अद्भुत अवतार था
कि जिस दिन लंगड़ाई हुई भाषा में पहला
एसएमएस अवतरित हुआ होगा
उस दिन यकीनन व्याकरण की तेरहवीं रही होगी/
यह किसी ने नहीं देखा
कि संवाद अंगुलियों से फिसल गया/
उसके पास होता है
मौसम का मिजाज
गाड़ी का समय
क्या खाया
क्या पकाया
सब सूचनाएं जरूरी मगर खुश्क हैं
लेकिन
भाषा और अभाषा के बीच
सुपरिचित ध्वनि के साथ
दर्ज होने वाली
कोई मिस्ड कॉल दैवीय होती है/
कि कोई है जिसे कुछ कहना था
कोई है जिसे कुछ सुनना था
जिसके होते हैं
अदृश्य शब्द
अनोखे मायने
अद्भुत व्याख्याएं
Wednesday, March 23, 2011
चुप की दहलीज़ पे ठहरा है कोई सन्नाटा
‘’मैं जानता हूँ तुम परेशान हो वरना ऐसे मौसम में इतनी रात गए यहाँ कभी नही आतीं. क्या परेशानी की वजह मुझे पूछने पड़ेगी बेटा?’’
जाने कितने लम्हे खामोशी की नजर हो जाते हैं, वो बाबा को देखती है. ‘’हाँ मैं परेशान हूँ, बहुत परेशान, मैं जानती हूँ, आप भी परेशान होंगे लेकिन ज़ाहिर नही कर रहे, लेकिन मुझ से बर्दाश्त नही होता, मुझे कुछ भी अच्छा नही लगता. आप जानते हैं, सब कुछ पहले जैसा होते हुए हुए भी पहले जैसा नही रहा.’’ बाबा की आंखों में अभी भी सवाल हैं. वो समझ नही पारहे या समझना ही नही चाहते. बाबा आप खबरें देखते हैं ना, एक अजीब सा माहौल हो गया है, कुछ सरफिरे और बुजदिल लोगों ने दहशत गर्दी की साजिश क्या अंजाम दी, लोगों की नज़रें ही बदल गयीं. कुछ हादसों ने पोशीदा नफरतों से नकाब ही हटा दिए. हम बेगुनाह होकर भी गुनाहगार ठहराए जारहे हैं. बाबा आज हिन्दुसानी मुस्लिम एक खौफ के साए में जीर आहा है. उसे शक की नज़र से देखा जारहा है.
’’ बाबा लब भींज लेते हैं, ‘’ हाँ कुछ बुजदिल लोग अपने नापाक इरादों से मज़हब को बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं. ये देश के ही नही सारी कौम के दुश्मन हैं, इंसानियत के दुश्मन हैं.’’
‘’मैं मानती हूँ बाबा कि कुछ लोगों ने ऐसा घिनावना काम किया, लेकिन वो मुजरिम थे, हर मुजरिम जो जुर्म करता है तो सज़ा उसे मिलनी चाहिए, लेकिन सज़ा हमें क्यों मिल रही है? आप जानते हैं, कुछ लोग खुले आम हमारे मज़हब की तौहीन कर रहे हैं. उस मज़हब की जो बिना किसी वजह के इक पत्ता तक तोडे जाने के ख़िलाफ़ है. हमारे बारे में जिसका जो दिल चाहता है, खुले आम बोल रहा है. क्या ये जुर्म नही है? बाबा आज माहौल ये है कि किसी का दुश्मनी में भी किया हुआ एक इशारा एक मुस्लिम नौजवान की सारी जिंदगी तबाह करने के लिए काफ़ी है.
''आपने अखबार में पढ़ा है ना की किस तरह मुंबई में एक मौलाना महमूदुल हसन कासमी जो एक फ्रीडम फाइटर की फैमिली से ताल्लुक रखते हैं , की बेईज्ज़ती की गई. सिर्फ़ शक की बिना पर उन्हें नंगे पैर बगैर टोपी के घसीटते हुए पुलिस थाने ले गई. वो तो जब तलाशी में उनके घर के अलबम से पता चला कि वो कितने इज्ज़तदार शहरी हैं तब पुलिस ने ये धमकी देते हुए उन्हें छोड़ा की वो इस वाकये का किसी से ज़िक्र ना करें. बाद में उनकी बड़े नेताओं से जान पहचान देखते हुए उन से माफ़ी मांगी गई. बाबा जब ऐसे क़द वाले शहरी के साथ ऐसा सुलूक हो सकता है तो सोचिये एक आम मुस्लिम के साथ कैसा सुलूक होता होगा.
अपने ही देश में हमारे साथ गैरों जैसा सुलूक किया जाता है. हम एक साँस भी ले लें तो इल्जामों का पूरा पुलिंदा हमें थमा दिया जाता है.’’
वो बोलती जारही है और बाबा हैरत से उसे देखे जारहे हैं. शायद उन्हें यकीन नही आरहा है.
‘’बेटा..वो जाने क्यों उसे टोक देते हैं.’’ मैं मानता हूँ की हमारे साथ ग़लत हो रहा है लेकिन ये वक्ति बेवकूफियां हैं जो वक्त के साथ ख़त्म हो जायेंगी.’’
‘’ लेकिन क्यों बाबा’’ उसे उन पर गुस्सा आजाता है ‘’हम सब ठीक होने का इंतज़ार क्यों करें? हम किसी को सफाई क्यों दें? ये हमारा देश है, वैसे ही जैसे बाकी लोगों का, वो चाहे चर्चों पर हमले करें,चाहे बेगुनाह ईसाइयों को क़त्ल करें, बिहारियों पर ज़ुल्म करें, बम बनाते हुए पकड़े जाएँ, उन्हें हाथ लगाने की हिम्मत कोई नही करता. सारी दुनिया के सामने मस्जिद को शहीद करने वाले, क़त्ल गारत मचाने वाले, खुले आम इज्ज़तदार बने घूम रहे हैं…आप मुझे बताइए बाबा, उनकी करतूतों की उनकी कौम से सफाई क्यों नही मांगी जाती? उन्हें शक की नज़रों से क्यों नही देखा जाता? हम सच भी बोलें तो गद्दारी का तमगा पहना दिया जाता है, क्यों?
हमारा जुर्म क्या यही है की जब मुल्क का बटवारा हुआ तो हम ने अपना देश नही छोड़ा?
बाबा उसकी आंखों में तड़पता हुआ गुस्सा देखते हैं और जाने क्यों सर झुका लेते हैं.
वो उनके सामने आ खड़ी होती है ‘’ बाबा आप ही कहते थे ना की दुनिया में सब से ज्यादा महफूज़ हिन्दुस्तानी मुस्लिम्स हैं, आज देख लीजिये, एक हादसे ने सारे मायने ही बदल डाले हैं. आज हम अपने ही मुल्क में अकेले हो गए हैं. आज हमें एक ऐसे सरबराह की ज़रूरत है जो हमारे साथ खड़ा हो कर हमें ये अहसास दिला सके कि हम अकेले नही हैं, लेकिन ऐसा कोई नही है, हमें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने वाले भी तमाशाई बने बैठे हैं.
आप जानते हैं, आज कालेज में एक्स्ट्रा क्लास लेने से इनकार करने पर एक लड़के ने मुझे कहा कि पता नही मुस्लिम्स लडकियां ख़ुद को इतना ख़ास क्यों समझती हैं.हालांकि उसके ऐसा कहने पर सर ने उसे डांटा भी, मैं कहना तो बहुत कुछ चाहती थी लेकिन आप ने मुझे मना किया था की ऐसे किसी टोपिक पर मैं अपनी ज़बान ना खोलूं, मैंने कोई जवाब तो नही दिया पर मैं उसकी आंखों के बदलते रंग देख कर दंग रह गई. आपको पता है ये वही लड़का था जो जाने कब से मुझ से दोस्ती की ख्वाहिश रखता था. कई बार सख्त लहजे में बात करने के बावजूद कभी उसके नर्म और मीठे लहजे में तब्दीली नही आई थी. आज उसका लहजा उसकी आंखों का अंदाज़ सब बदल गए थे. बाबा ये सब ठीक नही है, लोगों को बदलना होगा, ये हमारा देश है, कोई हमें पराया नही कर सकता. लोगों को समझना होगा की दहशत गर्दी का जन्म ज़ुल्म और बेइंसाफी की कोख से होता है. इसका ताल्लुक ना किसी मज़हब से होता है न किसी कौम से.
ये कुछ बेवकूफ और जज्बाती लोगों का इंतकाम होता है, ठीक उसी तरह जैसे ऊंची जात वालों के ज़ुल्म और तशद्दुद से तंग आकर छोटी जात के कहे जाने वाले कुछ जज्बाती बन्दूक उठा लिया करते थे. उसमें मज़हब का कोई दखल नही होता. बाबा ये बात लोगों को समझनी होगी, मीडिया को समझनी होगी जो तरह तरह की बातें फैला कर लोगों के जज़्बात भड़का रहा है. कुछ गलतियां हम पहले कर चुके हैं, अब और किसी गलती की गुंजाइश नही बची है. ये बात सब को समझनी होगी. हम एक घर में रहने वाले और एक ही फॅमिली का हिस्सा हैं. अगर खुशियों में एक हैं तो गम और मुसीबतों में भी एक होने चाहियें. परिवार तो वाही होता है ना बाबा?
वो थक कर चुप हो गई है, बाबा खामोश भीगे फर्श को तकते हुए जाने क्या सोचे जारहे हैं.
‘’बेटा, मैंने उम्मीद का दमन नही छोड़ा है, ये रमजान का महीना है, ये हमें सब्र की तलकीन करता है, सब्र से बड़ा हथियार कोई नही है.’’ आओ अब अनादर चलें’’
‘’सब्र…वो तल्खी से मुस्कुरा देती है. बाबा के सामने दिल में छाया गुबार निकाल कर मन कुछ हल्का हो गया है.बारिश की बूँदें फिर से गिरना शुरू हो गई हैं. मौसम कुछ और सर्द हो गया है, सन्नाटा भी और गहरा हो गया है. वो आसमान को देखती है. पता नही, उसका वहम है या सच, अँधेरा कुछ और बढ़ता महसूस हो रहा है. वो बाबा का हाथ थामे हुए अन्दर की जानिब बढ़ जाती है.
Monday, March 7, 2011
मैं मर्द हूं, तुम औरत, मैं भूखा हूं, तुम भोजन!!
मैं भेड़िया, गीदड़, कुत्ता जो भी कह लो, हूं. मुझे नोचना अच्छा लगता है. खसोटना अच्छा लगता है. मुझसे तुम्हारा मांसल शरीर बर्दाश्त नहीं होता. तुम्हारे उभरे हुए वक्ष.. देखकर मेरा खून रफ़्तार पकड़ लेता हूं. मैं कुत्ता हूं. तो क्या, अगर तुमने मुझे जनम दिया है. तो क्या, अगर तुम मुझे हर साल राखी बांधती हो. तो क्या, अगर तुम मेरी बेटी हो. तो क्या, अगर तुम मेरी बीबी हो. तुम चाहे जो भी हो मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता. मेरी क्या ग़लती है? घर में बहन की गदरायी जवानी देखता हूं, पर कुछ कर नहीं पाता. तो तुमपर अपनी हवस उतार लेता हूं. घोड़ा घास से दोस्ती करे, तो खायेगा क्या? मुझे तुम पर कोई रहम नहीं आता. कोई तरस नहीं आता. मैं भूखा हूं. या तो प्यार से लुट जाओ, या अपनी ताक़त से मैं लूट लूंगा.
वैसे भी तुम्हारी इतनी हिम्मत कहां कि मेरा प्रतिरोध कर सको. ना मेरे जैसी चौड़ी छाती है ना ही मुझ सी बलिष्ठ भुजायें. नाखून हैं तुम्हारे पास बड़े-बड़े, पर उससे तुम मेरा मुक़ाबला क्या खाक करोगे. उसमें तो तुम्हे नेल-पॉलिश लगाने से फ़ुरसत ही नहीं मिलती. कितने हज़ार सालों से हम मर्द तुम पर सवार होते आये हैं, क्या उखाड़ लिया तुमने हमारा? हर दिन हम तुम्हारी औक़ात बिस्तर पर बताते हैं. तुम चुपचाप लाश बनी अपनी औक़ात पर रोती या उसे ही अपनी किस्मत मान लेटी रहती हो. ताक़त तो दूर की बात है, तुममें तो हिम्मत भी नहीं है. हम तो शेर हैं. जंगल में हमे देख दूसरे जानवर कम से कम भागते तो हैं पर तुम तो हमेशा उपलब्ध हो. भागते भी नहीं. बस तैयार दिखते हो लुटने के लिये. कुछ एक जो भागते भी हो तो हमारे पंजों से नही बच पाते. पजों से बच भी गये तो सपनों से निकलकर कहां जाओगे.
पिछले साल तुम जैसी क़रीब बीस बाईस हज़ार औरतॊं का ब्लाउज़ नोचा हम मर्दों नें. तुम जैसे बीस बाईस हज़ार औरतों का अपहरण किया. अपहरण के बाद मुझे तो नहीं लगता हम कुत्तों, शेरों या गीदड़ों ने तुम्हे छोड़ा होगा. छोड़ना हमारे वश की बात नहीं. तुम्हारा मांस दूर से ही महकता है. कैसे छोड़ दूं. क़रीब अस्सी-पचासी ह़ज़ार तुम जैसी औरतों को घर में पीटा जाता है. हम पति, ससुर तो पीटते हैं ही, साथ में तुम्हारी जैसी एक और औरत को साथ मिला लिया है जिसे सास कहते हैं. और ध्यान रहे ये सरकारी रिपोर्ट है. तुम जैसी लाखों तो अपने तमीज़ और इज्ज़त का रोना रोते हो और एक रिपोर्ट तक फ़ाईल करवाने में तुम्हारी…. फट जाती है. तुम्हारे मां-बाप, भाई भी इज्ज़त की दुहाई देकर तुम्हे चुप करवाते हैं और कहते हैं सहो बेटी सहो. तुम्हारे लिये सही जुमला गढ़ा गया है, “नारी की सहनशक्ति बहुत ज़्यादा होती है.” तो फिर सहो.
मैं मर्द हूं और हज़ारों सालों से देखता आ रहा हूं कि तुम्हारी भीड़ सिर्फ़ एक ही काम के लिये इक्कठा हो सकती है. मंदिर पर सत्संग सुनने के लिये. तो क्या अगर तुम्हारा रामायण तुम्हे पतिव्रता होना सिखाता है. मर्दों के पीछे पीछे चलना सिखाता है. तो क्या, अगर तुम्हारी देवी सीता को अग्नि-परीक्षा देनी पड़ती है. तो क्या अगर तुम्हारी सीता को गर्भावस्था में जंगल छोड़ दिया जाता है. तो क्या अगर तुम्हारा कृष्ण नदी पर नहाती गोपियों के कपड़े चुराकर पेड़ पर छिपकर उनके नंगे बदन का मज़ा लेता है. तो क्या अगर तुम्हारी लक्ष्मी हमेशा विष्णु के चरणों में बैठी रहती है. तो क्या, अगर तुम्हारा ग्रंथ तुम्हारे मासिक-धर्म का रोना रो तुम्हे अपवित्र बता देता है. हम मर्द तुम्हें अक्सर ही रौंदते हैं. चाहे भगवान हो या इंसान, तुम हमेशा पिछलग्गू थे और रहोगे. तो क्या, अगर हरेक साल तुम तीन-चार लाख औरतों को हम तरह तरह से गाजर-मुली की तरह काटते रहते हैं. कभी बिस्तर पर, कभी सड़कों पर, कभी खेतों में. तुम्हारी भीड़ सत्संग के लिये ही जुटेगी पर हम मर्द के खिलाफ़ कभी नहीं जुट सकती.
तुम्हे शोषित किया जाता है क्युंकि तुम उसी लायक हो. मर्दों की पिछलग्गू हो. भले ही हमें जनमाती हो, पर तुम बलात्कार के लायक ही हो. तुम्हारी तमीज़ तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन और हमारा हितैषी है. जब तक इस तमीज़ को अपने दुपट्टे में बांध कर रखोगे, तब तक तुम्हारे दुपट्टे हम नोचते रहेंगे. जब तक लाज को करेजे में बसा कर रखोगे तब तक तुम्हारी धज्जियां उड़ेंगी. मैं भूखा हूं, तुम भोजन हो. तुम्हे खाकर पेट नहीं भरता, प्यास और बढ़ जाती है.
Wednesday, February 16, 2011
Sunday, February 13, 2011
Saturday, February 12, 2011
महिला के शासन में महिलाओं पर बढ़ रहे अत्याचार: अमर सिंह
महिला के शासन में महिलाओं पर बढ़ रहे अत्याचार: अमर सिंह
फतेहपुर की बलात्कार के असफल प्रयास में घायल लड़की को देखने हैलट अस्पताल आये अमर सिंह ने पीड़ित परिवार को एक लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी. इसके अलावा कुछ दिनो पहले बलात्कार का शिकार होकर मरी बालिका कविता के परिजनों को भी एक लाख रुपये की सहायता दी.
उन्होंने संवाददाताओं से बातचीत में कहा कि केवल कानपुर ही नही प्रदेश के अनेक शहरों मेरठ, गाजियाबाद आदि में भी महिलाओं और लड़कियों के साथ अत्याचार बढ़े है और इनमें दलितों के साथ अन्य समाज की महिलायें भी शामिल है.
फोन टैपिंग मामले के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि मैं पहले भी इस मामले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का नाम लिये जाने के लिये माफी मांग चुका हूं और फिर माफी मांग रहा हूं और अपने शब्द वापस ले रहा हूं. यह पूछे जाने पर कि क्या वह कांग्रेस पार्टी में शामिल हो रहे है, उन्होंने कहा कि वह तो नही शामिल हो रहे है लेकिन इस बारे में समाजवादी पार्टी से जरूर पूछ लीजियें शायद वह इसका बेहतर जवाब दे सकें.
सिंह ने कहा कि समाजवादी पार्टी उन पर आरोप लगाती है कि वह पूर्वाचंल की यात्रा एसी गाड़ियों में बैठकर करते है, इस पर उन्होंने अपने पैर दिखाते हुये कहा कि मेरे पैरों की हालत देखकर आपको लग सकता है कि मैं पैदल यात्रा कर रहा हूं या एसी गाड़ी से.
Thursday, February 3, 2011
हम लोगों ने निर्गुण- निराकार शब्दों को हाउ बना डाला है -दिनेस पारीक
निर् + गुण और निर् + आकार आदि समस्त पद है। व्याकरण शास्त्र के आचार्यो ने ऐसा नियम बताया है की ------ निर् आदि अव्यवों का पंचमी विभ्क्त्यंती शब्दों के साथ क्रांत (अतिक्रमण) आदि अर्थों में समास होता है।
इनका विग्रह (विश्लेषण) इस प्रकार किया जाता है------- निर्गतो गुणेभ्यो यः स निर्गुणः, निर्गत आकारेभ्यो यः स निराकारः । मतलब जो सारे गुणों का अतिक्रमण कर जाये (प्रकृति के सत्व, रज, तम तीनो गुणों से लिप्त ना हो ) वही निर्गुण कहलाता है। इसी तरह पृथ्वी आदि समस्त आकारों को जो अतिक्रमण करने की सामर्थ्य रखता हो, अर्थात जिसका आकार अखिल ब्रह्माण्ड से भी बड़ा हो, वही निराकार कहलाता है। निर्विशेष, निर्विकल्प आदि दूसरे शब्दों का भी इसी तरह अर्थ होता है।
व्याकरण शास्त्र के इन शब्दों के उपर्युक्त अर्थ के समर्थक उदहारण भी है। जैसे-------- "निस्त्रिंश:निर्गत: त्रिन्शेम्योsगुलिभ्यो यः स निस्त्रिंश:" अर्थात तीस अंगुल से बड़े खड्ग (तलवार) को निस्त्रिंश कहना चहिये।
इसी तरह वेदादि शास्त्रों में भी परमात्मा का आकार भी समस्त आकारों से बड़ा बताया गया है जिसके एक एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड स्थित है।
"ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।"
"पगु बिन चलै, सुनै बिन काना....कर बिन करम करै बिधि नाना"!! का अर्थ भी इन्ही अर्थों में है.................
शास्त्रीय प्रमाणों से जब अर्थ का सामंजस्य हो जाता है, फिर ब्रह्म को सर्वथा गुण रहित और आकार रहित कैसे माना जाये ????
Tuesday, December 28, 2010
मैं तो ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा सब अपने अपने चाहने वालों में खो गए
सब अपने अपने चाहने वालों में खो गए
हश्र औरों का समझ कर जो संभल जाते हैं
वो ही तूफ़ानों से बचते हैं, निकल जाते हैं
मैं जो हँसती हूँ तो ये सोचने लगते हैं सभी
ख़्वाब किस-किस के हक़ीक़त में बदल जाते हैं
ज़िंदगी, मौत, जुदाई और मिलन एक जगह
एक ही रात में कितने दिए जल जाते हैं
आदत अब हो गई तन्हाई में जीने की मुझे
उनके आने की ख़बर से भी दहल जाते हैं
हमको ज़ख़्मों की नुमाइश का कोई शौक नहीं
कैसे ग़ज़लों में मगर आप ही ढल जाते हैं
Tuesday, December 14, 2010
वो सुनता तो मैं कहता, कुछ और कहना था,
Friday, December 3, 2010
Hindi Comedy Hasya kavita : कभी हिम्मत ना हारना
मै जब जब लडखडाकर गिरता
मेरा खडे होकर फिरसे दौडना ना छूटता
क्योंकी...
मेरे पिछे पड गया था एक पागल कुत्ता
Thursday, November 25, 2010
याद की बरसातों में’
लगे जुगनू से चमकते हैं सियाह रातों में
चैन पाया है तेरी याद की बरसातों में
खो ना जाना कहीं जज़्बात की बारातों में
सच ओ ईमान को पाओगे हवालातों में
जो जिया करता है बिगड़े हुए हालातों में
सारे मौजूद जब अपने ही रिश्ते नातों में
फिर तो दोहराव है बाकी की मुलाक़ातों में
जिसको देखूँ वो है मशगूल बही खातों में
‘याद बहुत आता है
यादों ने आज’
दिल का कुसूर था मगर आँखों ने रो दिया
लेकिन मेरा नसीब कि उसको भी खो दिया
मन में जमी जो मैल थी उसको भी धो दिया
खुशबू ने मेरे पाँव में काँटा चुभो दिया
लेकिन समय की मार ने मुझको डुबो दिया
मुझको सुकून है मगर लोगों ने रो दिया
Followers
kavitaye
-
►
2009
(1)
- ► 12/27 - 01/03 (1)
-
►
2010
(89)
- ► 09/12 - 09/19 (30)
- ► 11/21 - 11/28 (55)
- ► 11/28 - 12/05 (1)
- ► 12/12 - 12/19 (1)
- ► 12/26 - 01/02 (2)
-
►
2011
(14)
- ► 01/30 - 02/06 (1)
- ► 02/06 - 02/13 (1)
- ► 02/13 - 02/20 (2)
- ► 03/06 - 03/13 (1)
- ► 03/20 - 03/27 (4)
- ► 07/17 - 07/24 (1)
- ► 10/16 - 10/23 (1)
- ► 12/25 - 01/01 (3)
-
►
2012
(7)
- ► 02/05 - 02/12 (1)
- ► 02/12 - 02/19 (1)
- ► 03/11 - 03/18 (1)
- ► 04/01 - 04/08 (1)
- ► 07/22 - 07/29 (1)
- ► 12/02 - 12/09 (2)
-
▼
2013
(3)
- ► 02/10 - 02/17 (1)
- ▼ 12/29 - 01/05 (2)
Feedjit
Blog: |
मेरी कविताओं का संग्रह |
Topics: |