Thursday, March 24, 2011

राहतें और भी हैं


कवि जो प्रेमी भी होना चाहें, उनके लिए सबसे बड़ी उपलिब्ध संभवत: यही होगी कि वे जब प्रेम कविता लिखना शुरू करें तो अंत तक कविता की तासीर प्रेम कविता जैसी ही रहे। लेकिन इस वातावरण में सारी बात बात प्रेम पर ही केंद्रित रहे यह कठिन लगता है। जहां जिम्‍मेदार लोग कह रहे हों कि महंगाई बढऩे का कारण गरीबों का अमीर होते जाना है…जहां वित्‍त विशेषज्ञ कह रहे हों कि उनके पास जादू की छड़ी नहीं है कि महंगाई छूमंतर हो जाए…जहां विदेशी खातों का खुलासा करने से नीति नियंता ही डर रहे हों,  जहां लोकपाल विधेयक  के कपाल पर सहमी हुई इच्छाशक्ति बार बार सिहर रही हो,  जहां भ्रष्टाचार के प्रति व्‍यवस्‍था के नियंता भी दर्शक की तरह टिप्पणी करें,  वहां केवल प्रेम की ही बात कैसे हो सकती है। हमारे आस पास और भी कई कुछ घटता है, हमें प्रभावित करता है। 

संतुष्टि का मंत्रोच्चारण और उसके प्रभाव-प्रकार अलग हैं लेकिन जब रसोई को महंगाई खाने लगे तब प्रेम के भावों पर अभाव हावी हो ही जाते हैं। सिर और पैरों की जंग में चादर अक्सर फटती आई है। शायर  ने कहा भी है :
ढांपें हैं हमने पैर तो नंगे हुए हैं सिर
या पैर नंगे हो गए सिर ढांपते हुए। 
यह तो हुई अभावों की बात। अब इसके बावजूद अगर प्रेम को ही देखना है तो कहा जा सकता है कि प्रेम में जो लड़के होते हैं वे बहुत सीधे होते हैं और प्रेम में जो लड़कियां होती हैं वे भी चालाक नहीं होती। प्रेम की तासीर है कि चालाकों को बख्‍श देता है। जिन लड़कियों के नितांत निजी पल मोबाइल कैमरे झपट लेते हैं वे बहुत बाद में जानती हैं कि प्रेम दरअसल था ही नहीं। वही कुछ कमजोर पल सार्वजनिक हो जाते हैं और ऐसा  सबकुछ लिख डालते हैं जो पढने योग्‍य नहीं होता।
प्रेम न तो बांधता है और न छोड़ता है। वह है तो है और नहीं है तो नहीं है। वह सबके प्रति एक सा होता है। देश, संबंध, प्रकृति, मानवता और उस सबकुछ के प्रति जो भी जीवन में रंग भरे। प्रेम के बीस चेहरों में से वास्तविक को पहचानना हो तो कठिन भी नहीं। वह आवारा नहीं होता। जिम्मेदार और होशमंद होता है। आवारा होता तो खाप के खप्‍पर से न टकराता। प्रेम तो रास्‍ता दिखाता है शाश्‍वतता का। लेकिन प्रेम से भी दिलफरेब होते हैं गम रोजगार के। प्रेम न भटकता है और न भटकाता है, जमीन पर रखता है।
तभी तो फैज अहमद फैज से भी कहलवा गया था :
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग
और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

खो गई है हंसी


कहीं खो सी गई है हंसी
कभी खेतों में लहलहाती सी दिखती थी
कभी पनघट पर छल-छलाती सी
चूल्हे में नर्म रोटी सी दिखती थी हंसी
चौपालों पर, गलियों में
आसानी से मिलती थी हंसी
अब हंसी सिमट गई है
आलीशान दीवारों तक
मल्टीप्लेक्स में लोग
हंसी खरीदने जाते हैं
दम घुटने लगा है ठहाकों का
हंसी की चमक चेहरे पर नहीं
चमचमाती कारों और
उनकी कतारों में दिखती है
हंसी कैद हो गई है
मैले-कुचैले चीकट कपड़े पहने
सर्दी में नंगे पांव कूड़ा बीनते
बच्चों के टाट के थैले में…..
दिनेश पारीक 

जो कहा नहीं गया


वह चिटिठयों के  क्षरण का समय था
जैसे धीरे-धीरे कोई होता है मरणासन्‍न /
वह कहने से
बचने का नहीं
कहने के लिए समय न होने
का संक्रमणकाल था/
पत्र वैसे ही खत्‍म हुए
जैसे होते हैं शब्‍द /
सबसे पहले उड़ा ‘प्रिय’
फिर हाशिये से बाहर हुए ‘आदरणीय’
फिर नाम
और फिर वह गायब हुआ
जो कहना होता था /
यह समय के चाबुक से छिली
संवाद की पीठ थी या
व्‍यस्‍तताओं के बटुए से छिटकी भाषा की पर्ची
लेकिन पता यही चला
संवाद नहीं रहा/
खतरनाक आवाज करने वाले
काले चोंगे भी चुक गए
फिर अचानक ही दुनिया आ गई जैसे मुट्ठी में
ऐसा यंत्र जो विभिन्‍न ध्‍वनियों में नाम झलका कर
शोर मचा कर बताता था
‘अमुक कॉल कर रहा है’/
संप्रेषण का यह अद्भुत अवतार था
कि जिस दिन लंगड़ाई हुई भाषा में पहला
एसएमएस अवतरित हुआ होगा
उस दिन यकीनन व्‍याकरण की तेरहवीं रही होगी/
दुनिया मुट्ठी में हुई पर
यह किसी ने नहीं देखा
कि संवाद अंगुलियों से फिसल गया/
दरअसल रिसीव्‍ड कॉल कई भ्रम तोड़ती है
उसके पास होता है
मौसम का मिजाज
गाड़ी का समय
क्‍या खाया
क्‍या पकाया
सब सूचनाएं जरूरी मगर खुश्‍क हैं
संवाद कहां रहा  यह आप जानें
लेकिन
भाषा और अभाषा के बीच
सुपरिचित ध्‍वनि के साथ
दर्ज होने वाली
कोई मिस्‍ड कॉल दैवीय होती है/
जो अब भी यह बताती  है
कि कोई है जिसे कुछ कहना था
कोई है जिसे कुछ सुनना था
जिसके होते हैं
अदृश्‍य शब्‍द
अनोखे मायने
अद्भुत व्‍याख्‍याएं
दिनेश पारीक 

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Wednesday, March 23, 2011

चुप की दहलीज़ पे ठहरा है कोई सन्नाटा


सारा दिन छाजों मेंह बरसता रहा. मौसम एकदम अभी से खुनक(सर्द) होने लगा है. सर्द मौसम की आमद का पैगाम देती ये बारिशें एक अजीब सी उदासी का तास्सिर देती हैं.
सब सो चुके हैं लेकिन उसे नींद नही आरही है. दिल की उदासी जब हद से ज़्यादा बढ़ने लगी तो वो कमरे से बाहर निकल आती है.
.एक घुटन सी है हर तरफ़. वो दरवाज़ा खोलकर टेरिस पर चली आती है. बारिश रुक चुकी है लेकिन इक्का दुक्का बूँदें अभी टपक रही हैं. अंधेरे की चादर ओढे स्याह रात के लबों पर अजीब सी खामोशी है.ना चाँद ना सितारे, बस एक सर्द सा सन्नाटा. वो कुछ सोचना नही चाहती लेकिन उसके अन्दर सवालों की एक दुनिया है.उलझनों के कई दर खुल गए हैं. बेबसी सर उठाने लगी है.
किसी के हाथों का शफीक लम्स उसके बालों पर ठहर जाता है लेकिन वो हैरान नही होती. वो जानती है कि उसके दिल के मौसमों के एक एक रंग से अगर कोई वाकिफ है, तो वो उसके बाबा ही हैं. वो बाबा को परेशान ही तो नही करना चाहती थी वरना ख़ुद ही उनके कमरे में चली जाती. लेकिन वो जानती है कि कुछ सवालात ऐसे हैं जिनके जवाब उसके बाबा के पास भी नही हो सकते.
‘’मैं जानता हूँ तुम परेशान हो वरना ऐसे मौसम में इतनी रात गए यहाँ कभी नही आतीं. क्या परेशानी की वजह मुझे पूछने पड़ेगी बेटा?’’
जाने कितने लम्हे खामोशी की नजर हो जाते हैं, वो बाबा को देखती है. ‘’हाँ मैं परेशान हूँ, बहुत परेशान, मैं जानती हूँ, आप भी परेशान होंगे लेकिन ज़ाहिर नही कर रहे, लेकिन मुझ से बर्दाश्त नही होता, मुझे कुछ भी अच्छा नही लगता. आप जानते हैं, सब कुछ पहले जैसा होते हुए हुए भी पहले जैसा नही रहा.’’ बाबा की आंखों में अभी भी सवाल हैं. वो समझ नही पारहे या समझना ही नही चाहते. बाबा आप खबरें देखते हैं ना, एक अजीब सा माहौल हो गया है, कुछ सरफिरे और बुजदिल लोगों ने दहशत गर्दी की साजिश क्या अंजाम दी, लोगों की नज़रें ही बदल गयीं. कुछ हादसों ने पोशीदा नफरतों से नकाब ही हटा दिए. हम बेगुनाह होकर भी गुनाहगार ठहराए जारहे हैं. बाबा आज हिन्दुसानी मुस्लिम एक खौफ के साए में जीर आहा है. उसे शक की नज़र से देखा जारहा है.
’’ बाबा लब भींज लेते हैं, ‘’ हाँ कुछ बुजदिल लोग अपने नापाक इरादों से मज़हब को बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं. ये देश के ही नही सारी कौम के दुश्मन हैं, इंसानियत के दुश्मन हैं.’’
‘’मैं मानती हूँ बाबा कि कुछ लोगों ने ऐसा घिनावना काम किया, लेकिन वो मुजरिम थे, हर मुजरिम जो जुर्म करता है तो सज़ा उसे मिलनी चाहिए, लेकिन सज़ा हमें क्यों मिल रही है? आप जानते हैं, कुछ लोग खुले आम हमारे मज़हब की तौहीन कर रहे हैं. उस मज़हब की जो बिना किसी वजह के इक पत्ता तक तोडे जाने के ख़िलाफ़ है. हमारे बारे में जिसका जो दिल चाहता है, खुले आम बोल रहा है. क्या ये जुर्म नही है? बाबा आज माहौल ये है कि किसी का दुश्मनी में भी किया हुआ एक इशारा एक मुस्लिम नौजवान की सारी जिंदगी तबाह करने के लिए काफ़ी है.
''आपने अखबार में पढ़ा है ना की किस तरह मुंबई में एक मौलाना महमूदुल हसन कासमी जो एक फ्रीडम फाइटर की फैमिली से ताल्लुक रखते हैं , की बेईज्ज़ती की गई. सिर्फ़ शक की बिना पर उन्हें नंगे पैर बगैर टोपी के घसीटते हुए पुलिस थाने ले गई. वो तो जब तलाशी में उनके घर के अलबम से पता चला कि वो कितने इज्ज़तदार शहरी हैं तब पुलिस ने ये धमकी देते हुए उन्हें छोड़ा की वो इस वाकये का किसी से ज़िक्र ना करें. बाद में उनकी बड़े नेताओं से जान पहचान देखते हुए उन से माफ़ी मांगी गई. बाबा जब ऐसे क़द वाले शहरी के साथ ऐसा सुलूक हो सकता है तो सोचिये एक आम मुस्लिम के साथ कैसा सुलूक होता होगा.
अपने ही देश में हमारे साथ गैरों जैसा सुलूक किया जाता है. हम एक साँस भी ले लें तो इल्जामों का पूरा पुलिंदा हमें थमा दिया जाता है.’’
वो बोलती जारही है और बाबा हैरत से उसे देखे जारहे हैं. शायद उन्हें यकीन नही आरहा है.
‘’बेटा..वो जाने क्यों उसे टोक देते हैं.’’ मैं मानता हूँ की हमारे साथ ग़लत हो रहा है लेकिन ये वक्ति बेवकूफियां हैं जो वक्त के साथ ख़त्म हो जायेंगी.’’
‘’ लेकिन क्यों बाबा’’ उसे उन पर गुस्सा आजाता है ‘’हम सब ठीक होने का इंतज़ार क्यों करें? हम किसी को सफाई क्यों दें? ये हमारा देश है, वैसे ही जैसे बाकी लोगों का, वो चाहे चर्चों पर हमले करें,चाहे बेगुनाह ईसाइयों को क़त्ल करें, बिहारियों पर ज़ुल्म करें, बम बनाते हुए पकड़े जाएँ, उन्हें हाथ लगाने की हिम्मत कोई नही करता. सारी दुनिया के सामने मस्जिद को शहीद करने वाले, क़त्ल गारत मचाने वाले, खुले आम इज्ज़तदार बने घूम रहे हैं…आप मुझे बताइए बाबा, उनकी करतूतों की उनकी कौम से सफाई क्यों नही मांगी जाती? उन्हें शक की नज़रों से क्यों नही देखा जाता? हम सच भी बोलें तो गद्दारी का तमगा पहना दिया जाता है, क्यों?
हमारा जुर्म क्या यही है की जब मुल्क का बटवारा हुआ तो हम ने अपना देश नही छोड़ा?
बाबा उसकी आंखों में तड़पता हुआ गुस्सा देखते हैं और जाने क्यों सर झुका लेते हैं.
वो उनके सामने आ खड़ी होती है ‘’ बाबा आप ही कहते थे ना की दुनिया में सब से ज्यादा महफूज़ हिन्दुस्तानी मुस्लिम्स हैं, आज देख लीजिये, एक हादसे ने सारे मायने ही बदल डाले हैं. आज हम अपने ही मुल्क में अकेले हो गए हैं. आज हमें एक ऐसे सरबराह की ज़रूरत है जो हमारे साथ खड़ा हो कर हमें ये अहसास दिला सके कि हम अकेले नही हैं, लेकिन ऐसा कोई नही है, हमें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने वाले भी तमाशाई बने बैठे हैं.
आप जानते हैं, आज कालेज में एक्स्ट्रा क्लास लेने से इनकार करने पर एक लड़के ने मुझे कहा कि पता नही मुस्लिम्स लडकियां ख़ुद को इतना ख़ास क्यों समझती हैं.हालांकि उसके ऐसा कहने पर सर ने उसे डांटा भी, मैं कहना तो बहुत कुछ चाहती थी लेकिन आप ने मुझे मना किया था की ऐसे किसी टोपिक पर मैं अपनी ज़बान ना खोलूं, मैंने कोई जवाब तो नही दिया पर मैं उसकी आंखों के बदलते रंग देख कर दंग रह गई. आपको पता है ये वही लड़का था जो जाने कब से मुझ से दोस्ती की ख्वाहिश रखता था. कई बार सख्त लहजे में बात करने के बावजूद कभी उसके नर्म और मीठे लहजे में तब्दीली नही आई थी. आज उसका लहजा उसकी आंखों का अंदाज़ सब बदल गए थे. बाबा ये सब ठीक नही है, लोगों को बदलना होगा, ये हमारा देश है, कोई हमें पराया नही कर सकता. लोगों को समझना होगा की दहशत गर्दी का जन्म ज़ुल्म और बेइंसाफी की कोख से होता है. इसका ताल्लुक ना किसी मज़हब से होता है न किसी कौम से.
ये कुछ बेवकूफ और जज्बाती लोगों का इंतकाम होता है, ठीक उसी तरह जैसे ऊंची जात वालों के ज़ुल्म और तशद्दुद से तंग आकर छोटी जात के कहे जाने वाले कुछ जज्बाती बन्दूक उठा लिया करते थे. उसमें मज़हब का कोई दखल नही होता. बाबा ये बात लोगों को समझनी होगी, मीडिया को समझनी होगी जो तरह तरह की बातें फैला कर लोगों के जज़्बात भड़का रहा है. कुछ गलतियां हम पहले कर चुके हैं, अब और किसी गलती की गुंजाइश नही बची है. ये बात सब को समझनी होगी. हम एक घर में रहने वाले और एक ही फॅमिली का हिस्सा हैं. अगर खुशियों में एक हैं तो गम और मुसीबतों में भी एक होने चाहियें. परिवार तो वाही होता है ना बाबा?
वो थक कर चुप हो गई है, बाबा खामोश भीगे फर्श को तकते हुए जाने क्या सोचे जारहे हैं.
‘’बेटा, मैंने उम्मीद का दमन नही छोड़ा है, ये रमजान का महीना है, ये हमें सब्र की तलकीन करता है, सब्र से बड़ा हथियार कोई नही है.’’ आओ अब अनादर चलें’’
‘’सब्र…वो तल्खी से मुस्कुरा देती है. बाबा के सामने दिल में छाया गुबार निकाल कर मन कुछ हल्का हो गया है.बारिश की बूँदें फिर से गिरना शुरू हो गई हैं. मौसम कुछ और सर्द हो गया है, सन्नाटा भी और गहरा हो गया है. वो आसमान को देखती है. पता नही, उसका वहम है या सच, अँधेरा कुछ और बढ़ता महसूस हो रहा है. वो बाबा का हाथ थामे हुए अन्दर की जानिब बढ़ जाती है.

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