Thursday, February 3, 2011

हम लोगों ने निर्गुण- निराकार शब्दों को हाउ बना डाला है -दिनेस पारीक


लोगों में सगुण और निर्गुण उपासना के तात्पर्य को लेकर बड़ा मतभेद है। एक सामान्य सी परिभाषा लोगों के दिमाग में फिक्स है की परमात्मा को निर्गुण मानकर की जाने वाली उपासना निर्गुण उपासना है, और साकार मानकर की जाने वाली उपासना सगुन उपासना। पर शायद बारीकी से सोचा जाये तो सगुन-निर्गुण का मतलब कुछ  और ही है। यदि उपास्य में ज्ञान,बाल,क्रिया,शक्ति,रूप  आदि कुछ माना ही ना जाये तो फिर उसकी उपासना की कोई आवश्यकता ही नहीं है। ऐसी वस्तु का क्या ध्यान किया जाये ? ऐसी शुन्य-कल्प निर्गुण वस्तुका तो निर्देशन करना भी कठिन है। हकीकत में तो ऐसा कोई तत्व हो ही नहीं सकता जिसमें रूप,गुण आदि ना हो।  हम लोगों ने निर्गुण- निराकार  शब्दों  को हाउ बना डाला है, और इन शब्दों के ऐसे कल्पित अर्थ कर डाले है की जनसामान्य की तो बुद्धि ही चकराने लगती है।  इन शब्दों के वास्तविक अर्थ क्या है, इस बारे में तो शास्त्रों का ही सहारा लिया जाना चहिये।

निर् + गुण और निर् + आकार आदि समस्त पद है। व्याकरण शास्त्र के आचार्यो ने ऐसा नियम बताया है की ------ निर् आदि अव्यवों का पंचमी विभ्क्त्यंती शब्दों के साथ क्रांत (अतिक्रमण) आदि अर्थों में समास होता है।


इनका विग्रह (विश्लेषण) इस प्रकार किया जाता है-------  निर्गतो गुणेभ्यो यः स निर्गुणः, निर्गत आकारेभ्यो यः स निराकारः । 
मतलब जो सारे गुणों का अतिक्रमण कर जाये (प्रकृति के सत्व, रज, तम तीनो गुणों से लिप्त ना हो ) वही निर्गुण कहलाता है। इसी तरह पृथ्वी आदि समस्त आकारों को जो अतिक्रमण करने की सामर्थ्य रखता हो, अर्थात जिसका आकार अखिल ब्रह्माण्ड से भी बड़ा हो, वही निराकार कहलाता है। निर्विशेष, निर्विकल्प आदि दूसरे  शब्दों का भी इसी तरह अर्थ होता है।

व्याकरण शास्त्र के इन शब्दों के उपर्युक्त अर्थ के समर्थक उदहारण भी है। जैसे-------- "
निस्त्रिंश:निर्गत: त्रिन्शेम्योsगुलिभ्यो यः स निस्त्रिंश:" अर्थात तीस अंगुल से बड़े खड्ग (तलवार) को निस्त्रिंश कहना चहिये। 

इसी तरह वेदादि शास्त्रों में भी परमात्मा का आकार भी समस्त आकारों से बड़ा बताया गया है जिसके एक एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड स्थित है।

"ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।"

"पगु बिन चलै, सुनै बिन काना....कर बिन करम करै बिधि नाना"!!   का अर्थ भी इन्ही अर्थों में है.................
शास्त्रीय प्रमाणों से जब अर्थ का सामंजस्य हो जाता है, फिर ब्रह्म  को सर्वथा गुण रहित और आकार रहित कैसे माना जाये ???? 

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