Tuesday, July 19, 2011

स्त्री-तžव


स्त्री-तžव
Gulab kothari special article

विश्व की प्रत्येक भाषा में विज्ञान की एक ही अवधारणा है कि सृष्टि में केवल दो ही मूल तžव होते हैं- पदार्थ और ऊर्जा। दोनों एक दूसरे में बदलते रहते हैं। वेद में हम इनको ब्रह्म और माया कहते हैं। सृष्टि में इनके स्वरूप को ही पुरूष और प्रकृति कहते हैं। हम जिन्हें स्त्री-पुरूष कहते हैं, उनमें इन तžवों की प्रधानता ही कारण है। स्त्री-पुरूष किसी शरीर की संज्ञा नहीं है। शरीर नर-नारी या मानव-मानवी का है। नर हो या नारी, दोनों में ही स्त्रैण, पौरूष गुण रहते हैं। इसीलिए सब अर्द्धनारीश्वर कहलाते हैं।

हमारे दर्शन में जीवन दर्शन पुरूषार्थ रूप में बताया गया है। इसमें धर्म बुद्धि का विषय है। अर्थ शरीर से जुड़ा है। मन की इच्छाओं को काम कहते हैं तथा इन कामनाओं पर विजय पा लेना ही मोक्ष है। जीवन के मर्यादित स्वरूप को ही धर्म कहते हैं। अर्थ की कामना जब मर्यादित हो जाती है, तब स्वत: ही मोक्षार्थी होने लगती है। व्यक्ति का पुरूष अंश सुख की तलाश करता है और स्त्रैण भाव शान्ति की कामना करता है। सुख चूंकि अस्थाई है, अर्थ से प्राप्त किया जा सकता है। शान्ति की धारा विपरीत दिशा में बहती है। प्रेम और समर्पण की धारा है।

प्रेम में व्यक्ति की प्रधानता है। सुख पदार्थो पर टिका है। अर्थ सृष्टि पर आधारित है। लक्ष्मी को पूजा जाता है। शान्ति शब्द-ब्रह्म (सरस्वती) से प्राप्त होती है। वैसे तो अर्थ प्राप्ति के लिए भी मंत्रों की सहायता ली जाती है। मूल में दोनों एक ही सिद्धान्त पर कार्य करते हैं। सुख शरीर के खारेपन की ओर दौड़ता है, शान्ति वाणी के मिठास पर टिकी होती है। यही माधुर्य प्रेम या भक्ति रूप में समर्पण कराता है। एक तžव का दूसरे तžव को समर्पित हो जाना ही सृष्टि में यज्ञ कहलाता है। सोम (सामग्री) यदि अगिA में जलने को, अपना अस्तित्व मिटाने को तैयार नहीं होगा, तब निर्माण नहीं हो सकता। सृष्टि का नयापन उसकी निरन्तरता का आधार है। इसका केन्द्र है-सोम।

समर्पण ही सोम की पहचान है, उसकी परिभाषा है। चन्द्रमा ही सोम है। सूर्य पत्नी है। सूर्य अगिA है। पुरूष में अगिA की बहुलता रहती है। स्त्री में सोम की। सूर्य-चन्द्रमा ही दोनों के शरीरों के उपादान कारण हैं। सूर्य से बुद्धि तथा चन्द्रमा से मन का सीधा सम्बन्ध रहता है। कोई भी व्यक्ति (नर या नारी) अभ्यास के द्वारा स्वयं को बुद्धिजीवी अथवा मनस्वी बना सकता है। यही दर्शन का केन्द्र है। बुद्धि में अहंकार होने से समर्पण भाव पैदा हो ही नहीं सकता। विरोधाभासी भाव है। अत: न पुरूष भाव भक्ति को समर्पित हो पाता है, न प्रेम को।

वैसे तो प्रेम ही भक्ति है। दांपत्य रति व्यवहार में प्रेम रूप है तथा देवरति को भक्ति कहा जाता है। देवरति में प्रवेश के लिए दांपत्य रति अनिवार्य प्रतीत होती है। हमारी आश्रम व्यवस्था का आधार भी यही सिद्धान्त है। गृहस्थाश्रम में तो प्रवेश ही सोम आधारित है। ब्रह्मचर्याश्रम ज्ञान प्रधान होने से अगिA रूप प्रकृति और अहंकृति का निर्माण होता (स्वभाव) है। यह अगिA भाव ही गृहस्थाश्रम के सोम का उपयोग करके नया निर्माण करता है।

यूं तो नारी को ही सौम्या कहा जाता है, किन्तु निर्माण प्रक्रिया में प्रधानता अगिA प्रधान रज की होती है। सोम प्रधान शुक्र उसमें समर्पित होता है। तब नया निर्माण होता है। गृहस्थाश्रम के पच्चीस वर्ष पूरे हो जाने पर माया का यह स्वरूप निवृत्त हो जाता है। वानप्रस्थ में माया का कार्य नर ह्वदय को सोममय बना देना होता है। ताकि वह भी समर्पित भाव सीखकर भक्ति की ओर अग्रसर हो सके। अब उसके पौरूष स्वरूप की अनिवार्यता नहीं रहती। कामनाओं के पार जाने का अभ्यास करना पड़ता है। अपने सोम को, माधुर्य, समर्पण, स्नेह, करूणा को बढ़ाते जाना है। अपने पौरूष भाव के अहंकार को परिष्कृत करके स्त्रैण बनाना है। जो भी भक्ति मार्ग या प्रेम मार्ग की यात्रा करे उसे पहले स्त्रैण बनना है। बिना पत्नी की मदद के स्त्रैण होना संभव ही नहीं है। दूसरी कोई भी औरत न तो पत्नी बन सकती है, न अहंकार को ही कुचल सकती है। वहां पशु भाव ही है।

आज की शिक्षा ने सब उलट-पुलट कर दिया। नारी ने बुद्धि प्रधान होकर पुरूष के अहंकार की नकल का मार्ग पकड़ना शुरू कर दिया। स्त्रैण भाव का लोप होने लग गया। अब समर्पण के स्थान पर टकराव का जीवन शुरू हो गया। मां-बाप भी न तो स्त्री, पत्नी और मां बनने की शिक्षा देते, न ही जिन्दगी के यथार्थ को समझाते। जिस बेटी के घर (ससुराल) में कभी मां-बाप पानी नहीं पीते थे, आज झगड़ा होने पर विवाह विच्छेद की तुरन्त सलाह देते हैं। झूठी शिकायतें पुलिस में दर्ज होती हैं और समझौते के नाम पर मां-बाप धन लेकर मौज उड़ाते हैं।

बेटी के पति के साथ रहने का मानो किराया मांग रहे हों। बेटी के सुख के बजाए धन पर आंख टिकी रहती है। कौनसा नया व्यापार इस देश में शुरू हो गया? शिक्षित लड़की में पौरूष भाव की प्रधानता होने से पुरूष अघिक समय तक आकर्षित रह ही नहीं सकता। प्रकृति सिद्ध नियम है। स्त्री में पौरूष भाव के बलवान होने पर आने वाली संतान माधुर्य से शून्य ही होगी। अपराध की प्रवृत्ति अघिक होगी। मां और बाप के मोक्ष या भक्ति मार्ग के दरवाजे तो स्वत: ही बन्द हो जाते हैं।

सुख के जीवन पार जाकर व्यक्ति संन्यास आश्रम में ईश्वर से जुड़कर शान्ति में प्रतिष्ठित होना चाहता है। इसकी एक मात्र शर्त है 'मीरां' बन जाना। हर पुरूष को जिसे शान्ति की तलाश है, उसे स्त्रैण बनना पड़ेगा। यही माया तब उसे ब्रह्म का साक्षात् कराएगी।

औरत सदा ही स्त्रैण रही है। नई औरत, शिक्षित औरत, अपने पति को कभी स्त्रैण नहीं बना पाएगी। हां, प्रारब्ध की बात अलग है। अत: हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि नई शिक्षा ने जीवन को भोग प्रधान बनाया और मोक्ष का मार्ग भी बन्द कर दिया। दूसरी ओर व्यक्ति अन्त समय तक गृहस्थाश्रम से बाहर निकलना ही नहीं चाहता। कलियुग में माया के इस स्वरूप की प्रधानता बाकी देशों में तो पहले से ही व्याप्त हो चुकी है। भारत में भी शुरूआत हो चुकी है।

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