Sunday, December 29, 2013

जागो

एक तरंग लिए कोई नई – नई से उमंग लिए
उठो जागो देखो कोई सायद उजला – उजला सा है ॥१॥
जेसे लंबी सर्द पतझड़ के बाद शान-ए बहारे बसंत
घने-घने अंधेरों मे टिम टिमाती कोई किरण सा है ॥२॥
२००साल की गुलामी के बाद सन 47 की आजादी
एक लंबी काली रात के बाद उजले-उजले दिन सा है ॥३॥
भयंकर आकाल के बाद कोई बारिश जेसे आई हो
उठो, जागो, चलो देखो भाई देखो सामने तुम्हारे कोई है ॥४॥
एक नया पेगाम लिए इस जीवन का कोई अंजाम लिए
हमे कुछ कर के दिखाना है फिर से अब एक हो जाना है ॥५॥
ना बहाना ना फसाना कोई भी दिल्लगी नहीं चलेगी आज
बस एक–एक कदम पल दर- पल दर हर पल साथ बढ़ाना है ॥६॥

फिर वही जज़्बात १८५७ की क्रांति के- अंग्रेज़ो भारत छोड़ो
नेताजी का वो नारा तुम मुझे खून दो मे तुम्हें आजादी दूंगा॥७॥
लाल-बाल-पाल की ललकार – शहीद भगत सिंह की एक दहाड़
चन्द्रशेखर आजाद की हुंकार जिससे हिली थी अंग्रेजी सरकार ॥७॥
भयंकर दामिनी प्रकरण के बाद जेसे उतर आए तुम सड़को पे
अन्ना आंदोलन मे आए रामलीला मेदान भ्रष्टाचार के खिलाफ ॥८॥
मुझे लगता है की कही न कही अभी भी बाकी है तुम मे गांधी
अहिंसा से जिसने चलायी गांधी जेसे ही एक अन्ना की आँधी ॥९॥
जाग भाई – जाग उठ अब तो उठ जा तेरे जागने से कुछ होगा
कही गांधी , कही सुभाष , कही आजाद-भगत  बनकर निकलेगा ॥१०॥
मे बड़ा आशावित हूँ तुम से, बड़े-बड़े अरमान है मेने पाले यहाँ तुम से
अब तो जागेगा फिर से रावण भागेगा फिर मिलाये तू गा कदम- कदम से ॥११॥
मन मे फिर वही ताजा उमंग लिए – फिर एक नहीं तरंग लिए
उठो जागो देखो कोई सायद उजला – उजला सा है
घने-घने अंधेरों मे टिम टिमाती कोई किरण सा है

लम्बे लम्बे फ़ासलों मे मंज़िले हाथो मे लिए है ॥१२॥

लापता

ना अता ना पता ये ज़िंदगी भी ना जानें अब क्यो है लापता
मुसकीले तो पहले भी आती रही अब क्यो है खफा खफा

ना जाने क्यो ये लम्हे भी अब लग रहे है जुदा  जुदा
समय ने केसा पलटा मारा खो ना जाए हम सदा सदा

जिनसे थे दोस्ताने हमारे वो दुश्मनों की मानिंद हो गये
प्यार के पंछी दिल के पिंजरो को भी तोड़ के चले गये

सावन की झड़ी भी अब तेजाबी बारिश क्यो सी लगती है
दिल की हर डगर अब गहरी-गहरी खो सी क्यो लगती है

अश्कों कों के बहने से अब प्यास भी बुझी-बुझी सी लगती है
प्यार के नाम से ही अब घबराहट-दलाहट सी सी लगती है

सावन की पुरवाइयाँ भी अब जेठ की लू मे बदलने लगी
चाँद की मधुर चाँदनी अब तापिस की भांति जलाने लगी

मौसम की अंगड़ाइयाँ जेसे सावन मे भी पतझड़ आ गया है

फूलों और बहारों मे खेत-खलिहानों मे आकाल सा छा गया है

Friday, February 15, 2013

जिंदगी की राहें: लोकार्पण: पगडंडियाँ

जिंदगी की राहें: लोकार्पण: पगडंडियाँ

बहुत ही खुबसूरत विवरण प्रस्तुत किया है आपने उस खुबसूरत शाम का ............ कार्यक्रम में शामिल न होते हुए भी वहीँ होने का अहसास हुआ .... शुक्रिया आपका 
"कुछ पगडंडियाँ होती ही ऐसी हैं .. जो राह चलते मुसाफ़िर के संग हो लेती हैं .. उन्हें केवल सही दिशा का बोध ही नहीं करतीं .. संग संग चल अकेले मुसाफिर को एक कारवां बना देती हैं "
................ कुछ ऐसी ही है हमारी "पगडंडियाँ" ............ 
मुकेश जी , अंजू जी, अंजना जी , हिन्द युग्म एवं शैलेश भारतवासी जी का तहे दिल से शुक्रिया हमको अपने कारवां में शामिल करने के लिए .... 
एक से भले दो .. दो से भले चार .. तू अकेला कहाँ मुसाफिर .. हम हैं और रहेंगे हमेशा तेरे साथ :)

सभी रचनाकारों को अनंत शुभकामनायें .. ये कारवां यूँ ही चलता रहे .. आमीन 

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