Thursday, March 24, 2011

खो गई है हंसी


कहीं खो सी गई है हंसी
कभी खेतों में लहलहाती सी दिखती थी
कभी पनघट पर छल-छलाती सी
चूल्हे में नर्म रोटी सी दिखती थी हंसी
चौपालों पर, गलियों में
आसानी से मिलती थी हंसी
अब हंसी सिमट गई है
आलीशान दीवारों तक
मल्टीप्लेक्स में लोग
हंसी खरीदने जाते हैं
दम घुटने लगा है ठहाकों का
हंसी की चमक चेहरे पर नहीं
चमचमाती कारों और
उनकी कतारों में दिखती है
हंसी कैद हो गई है
मैले-कुचैले चीकट कपड़े पहने
सर्दी में नंगे पांव कूड़ा बीनते
बच्चों के टाट के थैले में…..
दिनेश पारीक 

1 comment:

Unknown said...

दिनेश जी ..मन भर आया ..बहुत ही मर्मस्पर्शी संवेदना की अभिव्यक्ति ...
हंसी कैद हो गई है
मैले-कुचैले चीकट कपड़े पहने
सर्दी में नंगे पांव कूड़ा बीनते
बच्चों के टाट के थैले में…..
सादर अभिनन्दन !!!

Followers

Feedjit