Sunday, February 12, 2012

ए ज़िंदगी और क्या चाहती है तू


Pic by Dinesh


लावारिस आवारा सी लगती है तू
छम छम मटकती कहा चलती है तू
मनचली दीवानी सी पगली बेगानी सी
केसुओ से नज़रे छुपाए
किस से बचती है तू
कब रोती है
कब हँसती है
कई राज़ है सीने मे
सजदे जो करती है तू
तेरी आश्की मे
ऐसी खो ना जाउ
खुद को भी मैं समझ न पाउ
मंन मदहोश करती है तू
यह रंग कैसे रचती है तू
समझ न पाया कोई
तो कैसे जानू मैं
मोहरा हूँ तेरे हाथ का
ए ज़िंदगी और क्या चाहती है तू

9 comments:

हास्य-व्यंग्य का रंग गोपाल तिवारी के संग said...

Badhiya gazal. Behtarin Prastuti.

dinesh aggarwal said...

खूबसूरत एवं भावपूर्ण रचना.....
नेता- कुत्ता और वेश्या (भाग-2)

India Darpan said...

बेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना,
इंडिया दर्पण की ओर से होली की अग्रिम शुभकामनाएँ।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बहुत सुन्दर ग़ज़ल.... बहुत बहुत बधाई...
होली की शुभकामनाएं....

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बहुत सुन्दर ग़ज़ल...होली की शुभकामनाएं....

Asha Joglekar said...

जिंदगी ऐसी ही है कभी लुभाती कभी तरसाती । सुंदर रचना ।
आशा है आपकी होली रंगीन रही होगी ।

मेरा मन पंछी सा said...

bahut hi sundar bhavpurn prastuti....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत उम्दा!
जीवन की अच्छी परिभाषा दी है आपने!

S.N SHUKLA said...

बहुत सुन्दर.

कृपया मेरे ब्लॉग meri kavitayen पर भी पधारने का कष्ट करें.

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