मैं अकेला; देखता हूँ, आ रही मेरे दिवस की सान्ध्य बेला । पके आधे बाल मेरे हुए निष्प्रभ गाल मेरे, चाल मेरी मन्द होती आ रही, हट रहा मेला । जानता हूँ, नदी-झरने जो मुझे थे पार करने, कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख, कोई नहीं भेला । शब्दार्थ: भेला = पुराने ढंग की नाव
एक डोली और एक अर्थी आपस में टकरा गए इन्हें देख लोग घबरा गये ऊपर से आवाज़ आई ये कैसी बिदाई है लोगो ने कहा महबूब की डोली देखने यार की अर्थी आई है
Wednesday, November 24, 2010
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1 comment:
बहुत खूबसूरती से आपने वृध्दत्व की आहट को कविता में संजोया है ।
सुंदर कविता ।
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